धरम सिंह के कमरे में पहुँचते ही पिताजी हो जाते थे शुरु ।
अरे धर्मू आ गया तू, ज्यादा लेट नै कर दी रे तूने आज ?
हाँ बाबा आज घंटा भर ज्यादा हो गया, ड्यूटी के बाद आफिस में बुलाया था साब ने, कल से एक ट्रेनिंग करानी है बल।
अरे यार अपने साब को नै समझाता है कि खाने का टेम बि होता है कुछ, बोलना पड़ता है बेटा अपने लिए, नै तो ये देसी साब लोग ऐसे ही परेशान करते रेंगे।
धर्मू - ना पिताजी, ना। परेशानी वाली कोई बात नहीं है, फौज में ऐसा ही चलता रैता, चैबीस घंटे के नौकर जो ठैरे।
अच्छा एक बात बता कि तू पिन्सन कब ले रा है रे ? पन्द्रा साल हो तो गयी तेरी नौकरी ?
धर्मू - पिताजी कहाँ की पिन्सन अभी से ? अभी तो पन्द्रा पूरा ही हो रा है, अभी तो नायक ही बना हूँ आगे परमोशन भी लेना है और असली नौकरी की जरूरत तो अब है, ये देखो बच्चे अब पढ़ने वाले हो रहे हैं, उनकी अच्छी पढ़ाई लिखाई करानी है तभी तो ये कुछ बड़ा कर पायेंगे, नै तो मेरे जैसे सिपाई बनेंगे, अर क्या पता इनके जमाने में मेरे जैसे दस पास को फौज में नौकरी मिलती भी या नहीं। और आगे कहीं बाहर जमीन……. हल्की आवाज में बोलता और खरीदना बोलता ही नही था, एकाएक चुप हो जाता, क्योंकि इस बात पर पिताजी बहुत चिड़ जाते ठैरे, और ‘थाती हरण पूत मरण’ पर व्याख्यान सुनाने लगते। धरम चुपचाप परेड वाली ड्रेस बदलने लगता, लेकिन पिताजी अपने धुन में लगे रहते।
अरे बाबा सब हो जाएगा। उपर वाला जिसको सर देता है उसे सेर भी देता है। देखा नै तूने कि तेरा काका और पल्ले ख्वाळा का मदनी हौलदार टेम पर आ गए थे अपने घर सकुशल। और वो पदान का लड़का लख्खू तो पन्द्रा में ही आ गया था बल, अर बोल रा था कि बोड़ा मैं नै पड़ा आगे परमोशन के चक्कर में। अब वे सभी अपनी माटी अपनी गृहस्थी में खेती पुंगड़ी को खैनी कर रहे हैं। उस मदन सिंह ने तो पचास बकरियां भी रखी हैं। अब तू ही देख पाँच साल हो गए हमको अपनी घर-कूड़ी छोड़े जब से तू हमें साथ में लाया।
खेतों के भीड़े पगार टूट गए होंगे, लोग कूणे किनारे ढंग से खोदते भी होंगे कि नै ? पता नि किस-किस को तूने खेत कमाने को पकड़ाये हैं ? तेरे पिन्सन जाने तक सब बंजर हो़ जाऐगा बाबा। वो सुगै गांव की गोशाला टूट जाएगी तब तक, मकान के अन्दर मूसौं ने कर दी होगी रैं-दैं। अरे बाबा सब बरबादी हो गई होगी। छत की पठाल सरक गई होगी, चू रा होगा जगह-जगह से, तेरा काका निकाल रा होगा या नै उन चूनों को। दार-बांसे (छत की बल्लियां) सड़ने बैठ गये होंगे, इस परमोशन के चक्कर में तेरी सारी घर-कूड़ी ने बांझ (बंजर) पड़ जानी है रे बांझ ! मेरी सुन और अकल से काम ले, तेरी पिन्सन पक गई है चल निकल, ले चल मुझे अपनी थाती में। किसने समालनी है सजवाण मवासी की उतनी बड़ी चल अचल संपति जमीन जैजाद को, तीस नाली नेट जोत है मेरे नाम, उपर से वो छानी मरुड़ों वाली जमीन अलग। उतने घास के पेड़ लगाये हैं मैने। भीमल, खड़ीक, तिमला। और देखा नै तूने हमारे तिमला के पेड़ों पर जाड़ों के बखत गांव वाले कैसे आते हैं हरे पत्ते मांगने दूध वाली गाय भैंसो के लिए। सारे सगोड़ों में फल फरूट के पेड़ अलग लगाए हैं तेरे दादा और मैने। पूरा बागवान है। आड़ू, पुलम, संतरा, नांरगी, और वो खुबांनी व अंखरोट तो तेरा दादा लाया था बल कश्मीर से। ऐरां ! आजकल पता नै कौन खा रा होगा उनको, तेरी दीदियां भी दूर हैं। लोगों के छौरे (बच्चे) उच्छयाद (हानि) कर रै होंगे। तेरा काका कितना अपीड़ हो गया रे जो एक दाणी भी नै भेजता इन नातियों के लिए, ये यां दवाई से पकाये देसी फरूट खा रहे हैं।
बस ! तोते जैसी रटायी हुई यही एक कहानी हर दिन लगती थी दरवान दादा की, जब भी बेटा धरम ड्यूटी से क्वाटर पर पहुँचता था। एक लड़का था बुढ़ापे का, बारह पास करके फौज में भर्ती हो गया था। समय पर शादी कर दी थी, दो पोते हुए, जैसे ही बच्चे स्कूल लायक हुए धरम सिंह उन्हें गांव से बाहर शहर में ले आया था पढ़ाने के लिए।
अस्सी साल के बूढ़े पिताजी को कहाँ छोड़ता गांव में अकेला, इस लिए पोतों का वास्ता दे साथ ले आया था। कहते हैं जैसे-जैसे इन्सान की उमर बढ़ती है वैसे-वैसे लोभ ज्यादा बढ़ने लगता है। दरवान दादा उमर के इस पड़ाव में भी गांव में खेती, गाय, गोशाला बाहर भीतर रमक-धमक रहा था। बहू को गृहस्थी की हर छोटी बड़ी बातें समझाता। नाक रखकर खाना और कमर कसके कमाना सिखाता था। बेटे को साथ में चलने के लिए हरेहद मना कर रहा था कि मैंने अपना घर मुलुक छौड़ और कहीं नहीं जाना है। हमने पसीने से सींचा है इस गृहस्थी को, दिन-रात एक करके तेरी माँ और मैंने इतनी बड़ी सम्पत्ति जुटाई है।
जमीन जायदाद पशुधन पर दिन-रात खटकने से पत्नी पैंसठ में ही गोलोक वासी हो गई थी। बहू का डोला भी नहीं देख पाई थी बेचारी। दरवान दादा की किस्मत में था संतति का सुख इसलिए अच्छे होश हवास में भोग रहा था। दो नाती गोद में खेल रहे थे। जोड़ा टूटने के बाद एक बार तो दादा टूट सा गया था लेकिन बहू के आने व नातियों की किलकारियों से फिर बृद्ध अवस्था में भी उमंग व हिम्मत छलांग लगाने लगी थी ।
बल, बुढ़ापे का प्रेम नाती पोते, इन्हीं पोतों के प्रेम में बुढ़ापा कट रहा था इसलिए इनके बिना गांव में अकेला रहना मुश्किल क्या नामुमकिन लगा और समय के साथ समझौता करके घर की सारी माया छोड़ चल पड़ा था पोतों के पीछे। आने के दिन पोते हाथ पकड़कर आगे खींच रहे थे और दादा रुआंसा पीछे मुड़-मुड़ कर अपने गांव घर को निहार रहा था कि क्या पता दुबारा देख सकूं या नहीं इस मातृभूमि को।
आगे दो-ढाई साल अपने ही नजदीक शहर में रहे थे वहाँ अपने ही गढ़वाली लोग थे, साथ में अक्सर गांव घर से आए लोगों से मुलाकात हो जाती थी, उठना बैठना हो जाता था। बार त्यौहार या किसी के शादी ब्याह में आना-जाना लगा रहता था। इसी बहाने घर मकान की भी देखभाल हो जाती थी। तब घर से बाहर आना इतना नहीं अखरता था। लेकिन पिछले साल जब धरम अपने साथ दूर परदेश में ले आया तो दरवान दादा को यहाँ जेल सी हो गई थी।
बाहर घूमने जाना तो आदमियों की भीड़ में भी अकेला, निरा अकेला। किसी से बातचीत करने को नहीं बनता, पूछें तो क्या पूछें । देश परदेश के लोग, अलग बोली-भाषा, अलग खान-पान वाले, जीवन में हरिद्वार ऋषीकेश में जितनी समतल भूमि देखी थी वही मानस पटल पर अंकित था कि शहर ऐसे होते हैं, जानता था कि दुनियां बहुत बड़ी होती है, उस पहाड़ के बाद पहाड़ उसके बाद एक और पहाड़, दूर हिमशिखर, ह्यूँ चूळी कांठियां और उसके आगे नजर के उस पार भी होगा कोई अन्य पहाड़ियों का सिलसिला, खेत-खलिहान, गांव, गदेरे-नदियों का संगम। बाकी धरती का सबसे बड़ा भू-भाग समतल होता है नहीं जानता था। बस जहाँ तक नजर पहुँचती वहीं तक मानता था समतल सैंणें शहर को।
ना ही इतनी अच्छी हिन्दी बोलने आती थी कि किसी से सुगम संवाद स्थापित कर पाता। शहर का रंग ढंग। क्वाटर पर बहू भी कितना बतियाती, वह भी अपना डीसीप्लेन, साफ-सफाई व कीचन के काम-धंधों में लगी रहती। पोते स्कूल, ट्यूशन फिर अपना खेलना-कूदना और पढ़ाई। अब वे भी पहले के जैसे कंधे में नहीं झूलते, टीबी कमप्यूटर गेम आदी आधुनिक शहरी आवो हवा में घुलने लगे थे। दादा की बात का जबाब अब गढ़वाली मे नहीं हिन्दी मिक्स अग्रेजी में देते। अब उनकी बातें भी कम समझ में आती।
बात करने का एक मात्र साधन था तो धरम सिंह। अपने घर गांव की बात करने व दिल का गुबार निकालने का जरिया। वही हुंगरा दे हाँ में हाँ मिलाता, कुछ प्रश्नों का जबाब देता और कुछ को समझाने बुझाने की कोसिस करता कि आपके लिए कोई कमी पेशी नहीं है, आराम से खावो पीओ, अपने बुढ़ापे के दिन आराम से काटो। पर जिसकी कटनी थी उसकी कट नहीं बीथ रही थी। दिन रात एक ही मन भ्रम, घर की चिंता, अपने पहाड़ देहात की यादें। सुरम्य धरती, सदाबहार हरियाली अपनी आवो हवा का सुमिरन, स्मरण।
यहाँ न घुघती की घुर्र-घुर्र सुनाई देती ना न्योळी हिलांस की भौंण, ना पाखों में बासते काखड़़ र्मिगों की अवाजें थी ना ही दूर जगंल में डुकरते बाग की गूँजती गर्जना डुकरताळ। यहाँ था तो लिंडेर कुतों का वक्त वे-वक्त भौं-भौं, कैं-कैं। चारों तरफ मकानों का जंगल, ऊँचे पाँच-सात मंजिला बिल्डिंगें। एक दूसरे से चिपके। भीड़ भरि गलियां सड़क। मोटर गाड़ी रिक्शा टेम्पो का शोर। दिन-रात चैं-चैं, पैं-पैं। यहाँ अपनी रौंत्याळी धार-गाड़ों की सुरसुर्या ठंडी बथौं की बयार नहीं बल्कि घ्यैं-घ्यैं घूमते पंखे से निकली वाली गर्म लू थी। धारा-मंगरो व छौयूं का ठंडा पानी नहीं, दातों को चुभता फ्रीज का वाटर था। बाँज बुराँस की घनी छाया ना बल्कि अल सुबह ही मिनट में सर तपाती धूप थी।
बुराँस फ्योंळी के फूल देखने की खुद (याद) में दिल अक्सर अधीर व्याकुल रहता और मन हवा में उड़ता कि अभी जाऊँ और गले लगाऊँ, साँखी भिटोळी करूँ अपने उन देव फूलों की जिन्होने जीवन में लावण्य और लालित्य की परिभाषा सिखायी। इस उत्कंठा में आशा हिलोरें मारती कि कल तो चला ही जाऊँगा, मना लूंगा धरमू को। खुद में आज-आज, कल-कल करती आशाऐं सुबह सूर्योदय में ओश की बूंद जैसे चमकती और धूप के बड़ने पर समाप्त हो जाती। मधुमास बंसत की एक-आध झलक दिखती थी वो भी गमले में खिले गेंदे के फूल में।
रोज की जीवन चर्या बारह मासी एक जैसा ऋतु चक्र हो गया था। बंद दरवाजे के पीछे अपना कमरा, बाहर जीना, सीड़ियां, छत और एक लाईन पंक्ति में बने फौजी आवसीय कालोनियों की गलियां। कुछ समय घूम-घाम कर वापस अपनी चारपाई में पीठ के बल लेटे रहना और छत पर घूमते पंखे की पुंखुड़ियों के साथ घूमना। टीवी पर चलते चलचित्र के सीन समझ में नहीं आते, किसी समय समाचार सुनना होता, या कभी कोई धार्मिक सीरियल देखता कि पोते रिमोट को कहीं और घुमाकर टोम-जैरी, डोरेमोन पर ले जाते अर दादा कहता इन भ्यास मसाणों को मत देखो बाबा, छळ लग जाएगा।
हाँ… बस, मन लगता तो एक समय, वह समय होता पोतों का पढ़ायी करने वाला, जमीन पर बैठे दोनो हाथों को घूटनो के बाहर बांधे व हिलते हुए उनको एकटक देखना, तब वह वृद्ध आमात्य मन क्या सोच रहा होता किसी को नहीं पता होता, बस बेटे बहू व पोतों को सकून होता कि अभी चुप है। पढ़ाई करते पोतों को एकटक देखना या तो उनके अच्छे सुनहरे भविष्य के सुमिरन में खो जाना होता हो या इस बात का सकून था कि मेरे पोते मेरे सामने हैं। दोनो बातें बाराबर हो सकती। यूं ही दो साल गुजर गए शहर के उस उजले अंधियारे में। हाँ आज पिच्चासी साल के दरवान दादा के लिए अंधियारा ही था वह शहर। बसरते बेटे पोतों के लिए यह उजियारा अब एक नयें उज्जवल भविष्य की राह क्यों ना थी।
अब धीरे-धीरे घर की चिंता व इस कैदखाने से मनोविकारों ने घेर लिया, विस्मृति मनोभ्रंश, अल्जाईमर का सिकार हो गया। एक ही बात की रटंत, बार-बार एक ही सवाल, जबाब देने पर भी वही सवाल, कभी-कभी बेटे और पोतों को ही पूछ बैठना कि आप कौन हो, कहाँ से हो ? गांव में फलाने खेत में गेंहूं कटे या नहीं, फलाने खेत में लोगों के पशुओं ने उज्याड़ खा दिया होगा। फलाने तोक में आजकल अच्छी घास हो रखी होगी। फलाने के बैल बूढ़े हो गए थे लाया या नहीं। घर कब चलेंगे ? पेन्सन ले ले। मुझे अपनी पितृभूमि में ही मरना है, पितृ शमशान में ही मेरा अंतिम संस्कार करना। तेरे साथ दूसरा कौन कंधा देगा मुझे यहां परायी भूमि में, इस परायी भूमि में नही मरना मुझे, हर दिन अपने मरने का दिन बताता। अस्पष्ट आवाज और लड़खड़ाते कदमों के साथ ऐसे ही अपनी धुन में फौज के उस पन्द्रहा बारह के कमरे में रात-दिन दादा का अपना ही लोक संसार बिचरण करता।
आखिर एक दिन मस्तिष्क के कोष्ठकों एवं दिल के स्पंदनों में बसे अपने लोक दुनियां का सुमिरन इतना भारी पड़ा या हल्का हुआ, कि अचानक ब्रेन स्ट्रोक पड़ा। कुछ दिन अस्पताल और कुछ दिन घर पर अर्धचेतना में रहते पन्द्रहा दिन बाद प्राण वायु उसी लोक के लिए उड़कर चली गई जहाँ की रट इन पाँच सालों से लगाया हुआ था। बस छूट गई थी उस अंजान भूमि में उस काया की मिट्टी जिसका सम्बन्ध उस मिटटी से कभी रहा ही नहीं था। जीवन के आठ दशक तक जिस माटी में पैदा होने से आँख की भौंहों की सफेदी तक खपा उस माटी में उसकी मिट्टी का ना मिलना जन मानस के लिए जरूर चर्चा का विषय रहा था, लेकिन उस मातृभूमि प्रेमी चित के लिए नहीं, क्योंकि वह चिताळा (जगारूक) चित चेतना तक उस मातृ माटी के साथ ही विचरण कर रहा था।
कहानी - बलबीर राणा ‘अडिग’
30 Apr 2025