शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

फ्यूंली अब गुलमोहर बन गई है

 



फ्यूंली ! हाँ फ्यूंली रखा था उस अबोध जीव का नाम सच्चू ने। बसरते सच्चू उसे फ्योंली उच्चारित करता था। फ्यूंली नाम उसके लिए इस लिए भी प्रिय रहा होगा कि उसका बचपना गांव के भीटे-पाखों व पुंगड़ों की मुडेर पर झक्कास हंसती पीत फ्यूंली के फूलों के साथ बीता था। पहाड़ में फ्यूंली के फूलों का उगना प्रकृति की तरफ से खुशहाली का रैबार होता है। यानि ऋतुराज बसंत का आगमन। हमारे उत्तराखण्ड में फ्यूंली प्रेम और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। हमारे पहाड़ का कोई भी प्रकृति चितेरा कवि, गीतकार, सहित्यकार ऐसा नहीं होगा जिसने फ्यूंली को अपने कलम कंठ में ना रचा हो।

      चलो आज उस प्रेम पुष्प फ्यूंली पर लिखने के लिए नहीं बैठा हूं बल्कि अपने बेटे सच्चू (सचिन राणा) के जीवन के अभिन्न हिस्सा रहे फ्यूंली के प्रेम व खुद (याद) में बैठा हूँ। हम उसे बिल्ली नहीं कहते थे, बिल्ली कहने पर सच्चू नराज होता है। हाँ उसकी मम्मी कॉल करते समय पहले पहल जरूर यही पूछती थी कि म्या सच्चू को च रे तेरि बिराळी, हिन्दी के बिल्ली से हमारी गढ़वाली बिराळी और प्यारी होती है सायद इस लिए बिराळी बोलने पर सच्चू नाराज नहीं होता है। पिछले दस महिने से फ्यूंली हमारे परिवार की अहम सदस्य के रूप में थी, थी इस लिए कि अब वह इस भूलोक को उलविदा कर गई है। उसे जिन्दा रखने हेतु सचिन के तमाम प्रारब्ध धरे के धरे रहे। चौरासी लाख योनियूं में फ्यूंली बिराळी की बिल्ली योनि की यात्रा दस महिना और कुछ दिन की ही रही। अश्रुपूर्ण उलविदा प्यारी फ्यूंली। 

बसरते फ्यूंली सच्चू के दिल्ली निवास पर ही रहती थी, सच्चू उसे घर पर 2025 होली के समय एक हप्ता के लिए लाया था। तब सच्चू की मम्मी ने कहा था ले जा बा इसे जल्दी अपने दिल्ली, नहीं तो मैंने इसे तेरे पास नहीं भेजना, सायद वह भी उस प्यारी बाल नटखट के मूक मोह में मोहे जा रही होगी। फ्यूंली के दिल्ली होने से भी वह पूरे परिवार के साथ रोज रहती थी। रोजाना उसका नटखटापन, शैतानियां, सच्चू के कंधे पर झूलना, लेप्टॉप पर बैठना, उसके साथ घुंडी-मुंडी कठ्ठा करके सोना उगैरा-उगैरा विडियो कॉल में दिख जाता था। जब भी सचिन से बात होती बिना फ्यूंली को देखे हमें अधूरा लगता विशेष जब वह दिल्ली से बाहर होता। भावनाओं का अतिरेक समझो या अतिरेक जीव प्रेम, फ्यूंली के जाने पर सचिन को तो महा अधूरापन महसूस हो ही रहा होगा लेकिन हमें भी उतना ही अधूरापन महसूस हो रहा है। अपना सगा हो, कोई जीव हो या जीवन की अन्य चीज वस्तु जब जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है तो उसका ना रहना अधूरापन तो छोड़ता ही है जब तक समय अपनी भरपाई ना करे। समय से बलवान कोई नहीं है वह खाली करने के साथ भरपाई भी करता है। यही शाश्वत है।  

उस प्यारी फ्यूंली से परिचय ऐसा था कि 2024 दिसम्बर के पहलेे सप्ताह अंत में दिल्ली गोबिन्दपुरी की गली नम्बर 5 सचिन के फ्लेट के ग्राउन्ड फ्लोर के दरवाजे पर उसे वह अकेले रोती हुई मिली वो भी मात्र हप्ते दस दिन की अबोध, आँख ही खुली थी कि अपनी अपनी माँ से बिछुड़ गई थी। सच्चू उसे उठाकर अपने फ्लेट पर ले आया। तुरन्त उसे कैट डॉक्टर के पास ले गया, उसका ट्रीटमेन्ट करवाया, उसके लिए जरूरी पोषक व देखभाल की जानकरी ली। तुरन्त ही नामकरण भी कर दिया ‘फ्यूंली’। शाम को अपनी मम्मी को कॉल पर बताता है कि मैं फ्यूंली को ले आया, मम्मी उधेड़बुन में कि कैसी फ्यूंली रे ? क्योंकि हमारे उत्तराखण्ड में बेटियों का नाम भी फ्यूंली रखा जाता था। बेटा जवान है कुंवारा है मम्मी का ध्यान फ्यूंली फूल पर नहीं गया क्योंकि दिल्ली में फ्यूंली फूल की कोई गुंजाइस नहीं थी इस लिए उसे और ही शक हुआ। तभी उसने फ्यूंली को दिखाया ये है मेरि फ्यूंली। माँ बोली अरे क्या यार ! कौ बे ल्या तै चुतर्योल बिरोळौ मुळया। यह भी संजोग ही था कि सचिन कहता पापा इसका जन्म मेरे जन्म दिन के करीब यानि नवम्बर 28 के आस पास का ही है।

रचनात्मक व्यक्तित्व संवेदनशील होता ही है, सचिन राणा एक कवि, साहित्यकार, फिल्म मेकर है इस लिए उसका संवेदनशील जीव प्रेम अपेक्षित है। तब उसकी मम्मी बोल रही थी, अरे ना पाल बा उसे, छोड़ दे उसकी माँ के पास कल तूने परेशान होना है। जीव पालने के बाद उससे बहुत माया हो जाती है। पर सचिन के जिगर ने उसे हाथों-हाथ स्वीकार कर लिया था तो कैसे छोड़ता। बगत के आगे बढ़ने के साथ सचिन के दिल्ली वाले अकेले जीवन में एक सदस्य का पूर्ण प्रभुत्व जमने लगा। उसकी कमाई का एक चौथाई हिस्सा फ्यूंली का होने लगा। उसकी डाइट, पहनावा, खेलने की वस्तुएं, वक्त-वक्त पर वेक्सीनेशन, दवाई कियर वगैरा-वगैरा। मम्मी कहती अरे सच्चू तेरी फ्यूंली ने भी अपने पूर्व जन्म में अच्छे दान किए होंगे, कहाँ रहना था उसने शहरों की गलियों में तमाम जूठन पर और अब कहाँ एक अति प्रेमी मालिक के साथ राज कर रही है।

जैसा कि उपरोक्त उल्लेखित है कि फ्यूंली हमारे उत्तराखण्ड में प्रेम और खुशहाली का द्योतक माना जाता है। हमारा फूलदेई फूल सग्रान्द त्यौहार विश्व का अकेला त्यौहार है जिसमें बच्चे घर-घर फूल डालकर उस घर की खुशहाली की कामना करते हैं, खुशहाली बांटते हैं। यह त्यौहार बिना फ्यूंली के फूल के अधूरा माना जाता है। तो सचिन की फ्यूंली भी उसके लिए ऐसे ही चरिर्थात हो रही थी, फ्यूंली के आने से उसका जीवन और भी व्यवस्थित होने लगा। समय पर काम करना, अतरिक्त जिम्मेवारी का अहसास, जब भी आउट ऑफ स्टेशन काम के सिलसिले में होता दोस्तों के पास फ्यूंली की देखभाल की हिदायतें। और सचिन का मानना है कि पा जब से फ्यूंली मेरे जीवन में आई है मेरे काम में श्रीबृद्धी हो रही है। प्रेम के साथ खुशहाली। फिर मन में शंतोष होता कि प्रेरणा के लिए यह भी सही है।   

फ्यूंली को अच्छी परवरिश मिली और वह कम उमर में ही जवान होने लगी। हीट ने जब परेशान किया तो कुछ महिने पहले ही उसका ऑर्वशन भी करवाया। ऑर्वशन से वह कुछ-कुछ असहज और उदास रहने लगी। दोस्तों ने कहा यार ये स्ट्रीट नशल है और ज्यादा घूमने खेलने वाली होती हैं इसके साथ एक दोस्त हो जाय तो यह खुश रहने लग जाएगी। और फिर सच्चू के घर पर एक और बिराळी जूजू का आगमन हो गया। अरे क्यों पाल रहा है इतने बिल्लीयों को ? पा फ्यूंली उदास रहने लगी थी उसके साथ खेलने वाला चाहिए था। चलो बा तेरी खुशी। अब शादी का समय हो रहा है जल्दी घर बसा फिर बहुत प्रेम व जिम्मेदारी मिल जाएगी। हाँ वो तो हो जाएगा पा, पहले फ्यूंली तो संभल जाय।

 फ्यूंली अच्छे से संभली भी और शांत जुजू के साथ मस्त रहने लगी। फिर अपनी नटखट पर आ ही रही थी कि समय किसी और ही तरफ इंगित करने लगा। जाने के लिए बहाना चाहिए होता है। फ्यूंली उल्टी करने लगी कारण माना जाने लगा उसने घर पर कहीं गिरा हुआ सरसों का तेल चाट लिया। डॉक्ट को दिखाया, दवाई चली पर उसकी हालात ठीक नहीं हो रही थी। सचिन फिर उसे कैट स्पेलिस्ट के पास ले गए तो जाँच में पता चला कि वह बिल्लीयों के जानलेवा वाइरस फेलिन पर्वो से इफेक्ट हो गई है तुरत-फुरत सचिन ने उसे आईसीयू में रखवा दिया, आशा थी कि स्पेलिस्ट डॉक्टर के पास ठीक हो जाएगी पर 4 अक्टूवर 2025 आईसीयू में वह तीसरी रात काटने से पहले अपने चोले को छोड़ गई। दोस्तों के साथ वह रोता हुआ हॉस्पिटल गया और उसे यमुना तीर कालिन्दी कुंज में ससम्मान समाधिस्त किया। साथ ही उसकी समाधी पर गुलमोहर का पौधा रोप के आ गया ताकि जब वह पौधा गुलमोहर का विशाल पेड़ बने तो उसे अपनी फ्यूंली हमेशा जिन्दी मिले।

सचिन अपने दादा पर ज्यादा गया है, जीव प्रेम की ऐसी ही कहानी मेरे पिताजी की भी रही, ठेठ पहाड़ी परिवेस में पिताजी के जीवन का अभिन्न हिस्सा झंवर्या बैल था जिसकी समाधी पर पिताजी ने बुराँस का पौधा रोपा था, उस जीव प्रेम कहानी को मैने ‘बंसत के बाद का बुराँस के फूल’ शिर्षक से हिन्दी व गढ़वाली में उधृत किया है।

जब कोई प्रिय चला जाता है तो छूट जाती है उसका अप्रीतम अतीत जो भूलने से नहीे भूलता। सच्चू फ्यूंली को  बाबू यानि अपना बच्चा कह कर ही संबोधित करता था। नहाने जाता तो फ्यूंली बाथरूम के दरवाजे पर बैठी रहती, बर्तन धोता तो स्लेब पर बैठे उसके हाथों को एकटक देखती रहती, जब कभी वह थकान या उदासी से सुस्त रहता तो पास में आकर बैठ जाती और शरारत करने लग जाती, घर का ताला खोलने की आवाज सुन कर दरवाजे पर उसका स्वागत करती और पाँवों मे लिपटते हुए प्रेम जताती, फिर छोड़ती नहीं। कंन्धे व सर पर बैठना, काम करते हुए लेप्टॉप के कीबोर्ड पर जम जाना, गोदी में ऊंघना, रात को घुंडी-मुंडी (हाथ-पाँव व सर) इकठ्ठा कर बगल में सौ जाना ये सब अप्रीतम प्रेम की यादें अब अतीत बन गई हैं जिन्हें सचिन नहीं भूलेगा पर हाँ प्रेम की व्यवहारिक परिभाषा से वह जरूर रू-व-रू हुआ होगा। इतना प्रेम कि सच्चू ने फ्यूंली इंस्टाग्राम एकाउन्ट भी बनाया हुआ है। आशा है फ्यूंली का प्रेम मेरे सच्चू को जीवन को और प्रेममयी बनाने के लिए प्रेरित करता रहेगा उसके कर्म क्षेत्र व कुटुम्ब के लिए।

बुधवार, 17 सितंबर 2025

योगा संग दोहा



दिवाकर संग पथ गहे, स्वीकारें तप्त धूप।
जागृत हो कर्म साधना, मिटे हिय अंध कूप।।
 
कर्म संधान लक्ष्य पहुँचे, फिर बजे विजय शंख।
सार्थक हो काज तेरे, सकल लगाए अंक।।
@ बलबीर राणा 'अडिग' 

https://youtu.be/AOu69Pvab_g?si=t9kCSD4i8eZX3m-E  

मंगलवार, 16 सितंबर 2025

नव गीत



तप्त धूप में नहाकर गाएँ,
नए सपनों का गीत।
कर्मप्रधान धरती बोले,
जागो! करो श्रम-सृजन प्रीत।।

स्नायुओं में दौड़े शोणित-उत्साह,
मन में हो दृढ़ विश्वास।
तरुण डग बढ़ेंगे निर्भीक जब,
तब भागेगा अकर्मण्य त्रास।।

मिट्टी गाएगी गीत समृद्धि का,
पर्वत बजाएगा विजयी शंख।
अखंड भारत, सशक्त भारत,
होगा विश्वगुरु, जगत-रंक।।

16 Sep 25
@अडिग

रविवार, 14 सितंबर 2025

कुण्डलिया: राष्ट्रभाषा हिंदी दिवस



हिंदी हमारी शान है, भारत की पहचान।
अपनी यह राष्ट्रभाषा, है अपना अभिमान।।
है अपना अभिमान, मनोहर मोहक सुवास।
राष्ट्र स्वाभिमान है, आत्म-श्रद्धा आत्मविश्वास।।  
माथा सुशोभित है, य माता भारती बिन्दी।
समग्र जन गुमान हो, सर्वस्व राष्ट्रभाषा हिंदी।। 

बुधवार, 3 सितंबर 2025

भीड़ में कौन अलग नज़र आते हैं ?



भीड़ में कौन अलग नज़र आते हैं ?
जो साधना में खुद को तपाते हैं।

प्रयोजन होते सभी के पृथक, विलग,
पर! पाते वही जो स्वयं को खपाते हैं।

मद, सियासत लोलुपता चीज ही ऐसी,
यहाँ निर्देशक भी राह भटक जाते हैं।

कुठार* भरे पड़े हैं, भ्रष्टाचार से जिनके,
वही भ्रष्टाचार खत्म करेंगे बखाते हैं।

खुद घुटनों तक जल पड़े हैं, भीतर,  
किड़ाण* कहाँ आ रही बाहर चिल्लाते हैं।

लगन की लागत पहचानने वाले 'अडिग'
अगर-मगर वाली डगर नहीं जाते हैं।

*
कुठार - भंडार
किड़ाण - बालों के जलने की गंध

@ बलबीर राणा 'अडिग' 

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

चौमास में



चौमास में निखरता है पहाड़
चौमास में बिखरता है पहाड़
चौमास में ही मनभावन होता
चौमास में ही उजड़ता है पहाड़

सुख-समृद्धि के उत्सव भतेरे हैं
आपदाओं के सघन घनेरे हैं
विकास की जद में आ गया जो
इस लिए कहीं भी दड़कता है पहाड़
चौमास में निखरता है पहाड़.....

बादलों को बिकरालता भा रही
रिमझिम रुनझुनता नहीं सुहा रही
फटाक कहीं भी फट पड़ने से
विनाश-त्रास से तड़फता है पहाड़
चौमास में निखरता है पहाड़.....

दहाड़ मार रोना, सिसकना, सहना
नित बाजीगरों की बाजियों में हारना
छाती बने डामों से डमता जा रहा
दुधारू गाय समझ दुहता है पहाड़
चौमास में निखरता है पहाड़.....

चौमास - वर्षा ऋतु
29 अगस्त 25 
@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग' 

बुधवार, 13 अगस्त 2025

पहाड़ गीत

 



नहीं समझते वे पहाड़ को, 

जो दूर से पहाड़ निहारते हैं,

वे नहीं जानते पहाड़ों को,

जो पहाड़ पर्यटन मानते हैं। 

 

पहाड़ को समझना है तो, 

पहाड़ी बनकर रहना होता,

पहाड़ के पहाड़ी जीवन को, 

काष्ठ देह धारण करना होता।

 

जो ये चट्टाने हिमशिखर,

दूर से मन को भा रही, 

ये जंगल झरने और नदियाँ 

तस्वीरों में लुभा रही, 

मिजाज इनके समझने को, 

शीत तुषार को सहना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता,

 

वन सघनों की हरियाली 

जितना मन बहलाती है,

गाड़ गदनों की कल-कल छल-छल,

जितना मन को भाती हैं,

मर्म इनके जानने हैं तो 

उकाळ उंदार नापना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो, 

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

सुंदर गाँव पहाड़ों के ये, 

जितने मोहक लगते हैं, 

सीढ़ीनुमा डोखरे-पुंगड़े,

जितने मनभावन दिखते हैं, 

इस मन मोहकता को, 

स्वेद सावन सा बरसाना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

नहीं माप पहाड़ियों के श्रम का,

जिससे ये धरती रूपवान बनी,

नहीं मापनी उन काष्ठ कर्मों की,

जिससे ये भूमि जीवोपार्जक बनी,

इस जीवट जिजीविषा के लिए,

जिद्दी जद्दोहद से जुतना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

मात्र विहार, श्रृंगार रचने,

पहाड़ों को ना आओ ज़ी,

केवल फोटो सेल्फी रिलों में,

पहाड़ को ना गावो ज़ी,

इन जंगलों के मंगल गान को,

गौरा देवी बनकर लड़ना होता।

 

पहाड़ को समझना है तो,

पहाड़ी बनकर रहना होता।

 

दूरबीनों से पहाड़ को पढ़ना,

भय्या   इतना आसान नहीं,

इस विटप में जीवन गढ़ना,

सैलानियों का काम नहीं,

चल चरित्रों के अभिनय से इतर,

पंडित नैन सिंह सा नापना होता। 

 

पहाड़ को समझना है तो 

पहाड़ी बनकर रहना होता,

पहाड़ के पहाड़ी जीवन को 

काष्ठ देह धारण करना होता।

 

शब्दार्थ :-

 

गाड़-गदनेनदी- नाले

उकाळ-उंदारचढ़ाई-उतराई

डोखरे-पुंगड़ेखेत-खलिहान